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प्राकृतिक रंगों का उपयोग
आज जहां बाजार में बने रंगों की भरमार है, वहीं रियासतकाल में फूलों से रंग तैयार किए जाते थे। पलाश, केसू और पखाल के फूलों को पानी में भिगोकर प्राकृतिक रंग तैयार किए जाते, जो त्वचा के लिए लाभकारी होते थे। इन प्राकृतिक रंगों की खुशबू और कोमलता इस पर्व को और भी खास बना देती थी।
राजपरिवार की होली
रणथंभौर किले में होली का उत्सव खास होता था, जहां राजा और राजपरिवार के अन्य सदस्य विशेष सवारी निकालते थे। घोड़े, हाथी, ऊंटों की सजी-धजी सवारियों के साथ यह यात्रा किले के प्रमुख स्थानों से गुजरती थी। इस दौरान महल के आंगन में फूलों और प्राकृतिक रंगों की वर्षा की जाती थी, जिससे पूरा वातावरण रंगीन हो उठता था।
विशाल पात्रों का इस्तेमाल
इतिहासकारों के अनुसार, होली के दौरान महल में बड़े-बड़े पात्रों में रंग घोला जाता था। इन पात्रों में तैयार किए गए प्राकृतिक रंगों को विशेष प्रकार की पिचकारियों से छिड़का जाता था, जिससे उत्सव का आनंद दोगुना हो जाता था।
महिलाओं के लिए विशेष आयोजन
पुराने समय में महिलाओं के लिए अलग से होली खेलने की व्यवस्था होती थी। महल के अंदरूनी हिस्सों में महिलाएं मिलकर होली खेलती थीं, जहां संगीत, नृत्य और हंसी-मजाक का अद्भुत संगम देखने को मिलता था।
संस्कृति से जुड़े रहने की प्रेरणा
समय के साथ होली मनाने के तरीके में काफी बदलाव आ चुका है, लेकिन इतिहास की ये रंगीन झलक आज भी हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं से जोड़ती है। रणथंभौर दुर्ग में मनाई जाने वाली होली न सिर्फ एक त्योहार थी, बल्कि यह शाही अंदाज में खुशी और उल्लास को व्यक्त करने का माध्यम भी थी। आज जब हम होली मनाते हैं, तो हमें इस परंपरा से प्रेरणा लेते हुए प्राकृतिक और सुरक्षित रंगों का अधिक उपयोग करना चाहिए।
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